गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

मैं कफ़न में लिपटी इक तस्वीर मढ़ रहा हूँ

मैं कफ़न में लिपटी इक तस्वीर मढ़ रहा हूँ,
हुकूमत के मुंह पर इक तमाचा जड़ रहा हूँ ।

भूख की कलम से, मैं पेट के पन्नों पर,,
बेबस गरीबी की इक कहानी गढ़ रहा हूँ ।

कानून क्यों है बेबस?यही खुद से बूझते मैं,
इंसाफ की डगर पर ऐड़ी रगड़ रहा हूँ ।

आ जाएगी अमन की दुल्हन मेरे वतन में,
इसी आस में उम्मीदों की घोड़ी चढ़ रहा हूँ ।

इंक़लाब के सफर में ज़ज़्बों की पोटली ले,
हिम्मत की तेज़ आती गाड़ी पकड़ रहा हूँ ।

बारिश सुकून-ए-राहत, बेवक़्त हो बेमौसम,,
यही आसमाँ को कहने शिद्दत से बढ़ रहा हूँ ।



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