मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

ज़िंदगी को समझने के लिए, 
ज़िंदगी के पीछे न भागते रहिए,,
देखिये सारे नज़ारे इस जहाँ के, 
पर एकटक न ताकते रहिए,,
और खुलेंगे सारे राज़ आपके करीबी लोगों के,
बस इतना ख्याल रखना,,
जब वो समझें कि आप सो रहे हैं,
कसम से, बस उस वक़्त जागते रहिए ॥ 

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

मैं कफ़न में लिपटी इक तस्वीर मढ़ रहा हूँ

मैं कफ़न में लिपटी इक तस्वीर मढ़ रहा हूँ,
हुकूमत के मुंह पर इक तमाचा जड़ रहा हूँ ।

भूख की कलम से, मैं पेट के पन्नों पर,,
बेबस गरीबी की इक कहानी गढ़ रहा हूँ ।

कानून क्यों है बेबस?यही खुद से बूझते मैं,
इंसाफ की डगर पर ऐड़ी रगड़ रहा हूँ ।

आ जाएगी अमन की दुल्हन मेरे वतन में,
इसी आस में उम्मीदों की घोड़ी चढ़ रहा हूँ ।

इंक़लाब के सफर में ज़ज़्बों की पोटली ले,
हिम्मत की तेज़ आती गाड़ी पकड़ रहा हूँ ।

बारिश सुकून-ए-राहत, बेवक़्त हो बेमौसम,,
यही आसमाँ को कहने शिद्दत से बढ़ रहा हूँ ।



सोमवार, 20 अक्तूबर 2014

कुछ नहीं चाहिए

एक लड़की के पिता ने, बेटी की तय की सगाई,
पंडित को बुलाकर विवाह की तिथि  कराई। 
लड़की का पिता बोला,
आज से मेरी बेटी आपकी अमानत है,
आपने इसे अपनाया, ये आपकी इनायत है। 
लड़के का पिता फिर बड़े ही प्यार से बोला,
अपनी मनोकामनाओं का तब पिटारा खोला। 
हमे बहू मिल गई,बस और क्या चाहिए?
घर जाकर आप शादी की तैयारी कराइए। 
दहेज़ के नाम पर हम कुछ नहीं लेंगे,
वो आपकी इच्छा है कि आप क्या-क्या देंगे?
आप तो अपनी बेटी से बहुत प्यार करते हैं,
उसके लिए पैसे की परवाह तक नहीं करते हैं। 
आप की इसी खूबी ने तो अपना दिल मिलाया है,
बड़े दिनों बाद ये सुनहरा मौका आया है। 
दस लाख रुपए तो आप तिलक में ही दे देंगे,
आप का दिल न टूटे,
इसलिए दिल कड़ा कर हम उन्हें रख लेंगे। 
टीवी,कूलर,फ्रिज तो आप उपहार में दे देना,
वाशिंग मशीन,मारुती के साथ बेटी की विदा करा देना। 
बस बरातियों का स्वागत आप जी भर के कराइए,
हमें तो दहेज़ से नफ़रत है, हमे कुछ नहीं चाहिए ॥


  

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

यूँ तो हम सभी के अंदर एक लेखक है लेकिन हम सब जीवन के ताने बाने में कुछ इस तरह उलझ जाते हैं की हमारे अंदर का वो लेखक गुमनामी में खो जाता है । किसी ने मुझसे कहा था की अगर लोग अपने विचार, अपने अनुभव, अपने साथ घटित हुई घटनाएँ, अपनी भावनाएं किसी दिन लिख के देखें तो शायद उन्हें, अपने अंदर छिपे उस लेखक पर यकीन हो जाये । इस प्रकृति में,इस सृष्टि में कुछ भी निरर्थक नहीं है । न ही कोई वस्तु न ही कोई प्राणी । हम सब के अंदर असीम संभावनाएं हैं, असीमित क्षमताएं हैं ।
                                     यहाँ मैंने लोगों से अपनी भावनाएं बांटने, उन तक अपने विचार पहुँचाने के लिए अपनी रचनाओं को माध्यम के रूप में चुना है । मेरी ये रचनाएँ एक सेतु हैं मेरे और मुझसे अनभिज्ञ लोगों के बीच । शायद अपने इस प्रयास से कुछ लोगों तक मेरे विचार सही मायने में पहुँच सकें, शायद कुछ को रहत मिल सके, शायद कुछ अच्छे बदलाव हो पाएं और सबसे बड़ी बात की मुझे बहुत कुछ सिखने को मिल सके ।
                                              सभी का हार्दिक अभिनन्दन । 

सरकार की रेल


एक ओर हैं ,
जनरल की बोगीं।
जिसमें बैठते हैं...
दमघोंटू माहौल में जीने की कला सीखे,
कुछ योगी,
और सरकारी बीमारियों से पीड़ित,
असंख्य रोगी।

दूसरी ओर हैं ,
उन्हीं बोगी से लगी हुईं कुछ ख़ास बोगीं।
जिनमें बैठते हैं...
भोगों से घिरे हुए,
भोग भोगते भोगी,,
और ग़रीबी से अछूते,
कई निरोगी।

कितना अनोखा,
यहाँ सुख-दुख का तालमेल है,,
जनता की सुविधा के लिए बनाई गई,
ये सरकार की रेल है॥



शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

ममता का मोल

नौ महीने तक सींच रक्त से, जिसको कोख में पाला,,
आज उसी बेटे ने माँ को, अपने घर से निकाला।
जर्जर होती देह लिए, माँ ने बेटे को निहारा,,
मानो उसके जीने का अब, छूट रहा हो सहारा॥

भूल गया गीली रातें, जब रोता था चिल्लाता था,,
हाथ पैर निष्क्रिय थे तेरे, पड़े-पड़े झल्लाता था।
तब त्याग नींद! तेरी जगह लेट, सूखे में तुझे सुलाती थी,,
अपने सीने से लिपटा, बाँहों में तुझे झुलाती थी॥

भूल गया वो सूखे दिन, जब गर्मी से घबराता था,,
सन्नाटे की चादर ओढ़े, रात से जब डर जाता था।
तब आँचल से पंखा कर, खुद गर्मी में वो मरती थी,,
और ईश्वर की कथा सुना, डर तेरे दूर वो करती थी॥

भूल गया जब भूख से व्याकुल, होकर शोर मचाता था,,
खुद बारिश में भीगा करता, सेवा में माँ को नचाता था।
तब खुद भूखी रहकर, पूरी रोटी तुझे खिलाती थी,,
दिन भर करती काम, रात में लोरी तुझे सुनाती थी॥

भूल गया जब खेल-खेल में, चोटिल तू हो जाता था,,
और जब रोग से पीड़ित हो, फिर भावशून्य हो जाता था।
घबराकर तब तुझे चूम, वो मरहम तुझे लगाती थी,,
दवा पिला तेरा सिर सहला, आँखों में रात बिताती थी॥

तेरा जीवन भी क्या जीवन? ये सब उसका दान है,,
अपनी माँ का ह्रदय दुखाना, ईश्वर का अपमान है।
क्षम्य नहीं हो सकता पापी, तूने जो अपराध किया,,
अपनी माँ को तज तूने, अपने जीवन का नाश किया॥   


शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

हिन्द-सपूत

मातृभक्ति गुंजित स्वर तेरे, सिंहनाद सा करते हैं,,
तेरा साहस शौर्य देख, तेरे भय से शत्रु मरते हैं ।

वेग तेरी आशा का भारी, है आंधी तूफानों पर,,
तेज तेरे चेहरे का भारी,  बिजली की मुस्कानों पर ।

शक्ति का अंबार छिपा है, तेरे दृढ़ संकल्पों में,,
जीवन का हर गीत लिखा है, तूने प्रेम के पन्नों में ।

संबल तेरा पाकर ही, निर्बल ने है लड़ना सीखा,,
देख अडिग विश्वास तेरा, पाषाणों ने अड़ना सीखा ।

धीर हो तुम! गंभीर हो तुम, भारत के सच्चे वीर हो तुम,,
सीमा पर घुसने वाले के, लेने प्राण अधीर हो तुम ।

घर-बार छोड़ हो अटल खड़े, करते शरहद की निगरानी,,
राष्ट्र को करते प्राण न्यौछावर, तुमसा नहीं कोई दानी ।

घर में बैठे मस्त हुए हम, बेफ़िक्री की रोटी पर,,
तुम हाथ राष्ट्रध्वज लिए खड़े, हिम की दुर्गम सी चोटी पर ।

तुम लोकतंत्र! तुम संविधान, तुम राष्ट्र के भाग्य विधाता हो,,
हम हैं स्वतंत्र! गौरवशाली, इस स्वत्व के तुम निर्माता हो ।

हम हैं कृतघ्न जो भूल गए, कोई जाग रहा सो सोते हम,,
जो तुम हो तो हम सब हैं, कहीं दास बने नहीं रोते हम ।

तुम अजर-अमर यश के स्वामी, हम तुच्छ क्षुद्र परिणाम हैं,,
हाथ जोड़ और शीश नवा, तुम्हें कोटि-कोटि प्रणाम है ॥ 

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

तुम मेरी मोहब्बत का इम्तिहान न लो

तुम मेरी मोहब्बत का इम्तिहान न लो,
बस यूँ ख़ामोश रह कर मेरी जान न लो ।

लोग कोसेंगे तुम्हें, तुमसे करेंगे दिल्लगी,
तुम अपने माथे पर, मेरी उजड़ी हुई पहचान न लो ।

बस्तियां खाली पड़ीं, कई लोग देंगे आसरा,
इक रात बसने के लिए, मेरे दिल का सूना मकान न लो ।

बेजुबां बेदम सा होकर, मैं पड़ा तेरी राह में,
मुँह फेर कर गुजरो मगर, मेरी आँखों की जुबान न लो ।

मैं बड़ा नाजुक हूँ, दिल पर बोझ भारी है बहुत ,
न गिरूँ नज़रों से तेरी, तुम मेरा ईमान न लो ॥

बच्चों को अपने पहले इंसान हम बना दें

सूनी पड़ीं हैं कब से, रिश्तों की महफ़िलें ये,
आओ हम तुम मिल के, ये महफ़िलें सजा दें।
छेड़ी जो तान तुमने, मायूसी के शहर में,
हम भी हंसी की छोटी सी डुगडुगी बजा दें॥

बंद हैं दरवाजे, बहरों की बस्तियों में,
तो हम भी बन के गूंगे, इन्हें कोई सदा दें। 
कुछ ग़म की है उधारी, कुछ क़र्ज़ बेबसी का,
दे बेक़सी के सिक्के, ये क़र्ज़ कर अदा दें॥

खाते लज़ीज़ व्यंजन, समझोगे क्या ग़रीबी,
होता नहीं निवाला, किसी भूखे को खिला दें। 
सर पर हमारे बैठे, हैं रौंदते हमे जो,
आओ इन ग़लीज़ों की, मिल के जड़ हिला दें॥

ईमान बेच कर क्या, सोओगे चैन से तुम,
दे कोई जो रिश्वत, चलो उसको कर मना दें ।
और भी हैं राहें, ख़िदमत की मेरे यारों,
बनना है गर लुटेरा, चलो नेता तुम्हें बना दें ॥ 

उड़ जाएगी ये दौलत, ये रंग शोहरतों के,
सबकी बेहतरी में, चलो इसको कर फ़ना दें। 
ओहदे से न मिलेगी, इज़्ज़त किसी के दिल में,
बच्चों को अपने पहले इंसान हम बना दें॥ 

बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

॥ जीवन-पथ ॥

॥ जीवन-पथ ॥


मैं अनजाना पथिक भटकता ,

जीवन के दोराहे पर,

मानस के मैं द्वंद में उलझा ,

तर्कों के चौराहे पर ।


हूँ भ्रमित, है मन चकराया सा,

दृष्टि भी है धुंधलाई सी ,

निष्प्राण सा मैं बढ़ता जाता ,

मृत्यु से हुई सगाई सी ॥ 

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2014

ग़ज़ल : मेरा हाथ थाम लो तो सबको जवाब हो जाए।


ग़ज़ल : मेरा हाथ थाम लो तो सबको जवाब हो जाए। 



ज़िंदगी की आखिरी करामात हो जाए ,

चलो आज मौत से मुलाकात हो जाए ।


इस उम्मीद में निकला हूँ, मिल जाए कोई इंसां ,

बरसों चुप रहा, अब किसी से बात हो जाए ।


बरसात आ गई है, कुछ बीज मैं भी बो दूँ ,

शायद हरी-भरी फिर ये क़ायनात हो जाए ।


अक्सर ही पूछता हूँ, मैं ये सवाल खुद से ,

क्या करूँ कुछ ऐसा , कि वो खुशमिज़ाज़ हो जाये।


उम्र से ही पहले दिखने लगा हूँ बूढ़ा ,

चलो सफ़ेद बालों में, अब ख़िज़ाब हो जाए । 


पीठ पीछे ताने सबने दिए हैं मुझको ,

मेरा हाथ थाम लो तो , सबको जवाब हो जाए ।